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कलाम
आतिश-ए-ग़म किस के बस की है जो मेरे बस की होऔर भड़का लूँ अगर उस को बुझा सकता हूँ मैं
कामिल शत्तारी
कलाम
मिटा गुलशन तो उठ कर ख़ाक-ए-गुल से हम कहाँ जातेजहाँ गुलशन था पहले अब वहीं पर है मज़ार अपना
मयकश अकबराबादी
कलाम
ये दुनिया-ए-मजाज़ आईना-ख़ाना है हक़ीक़त काछुपा कर अपनी सूरत फेंक दी हैं अपनी तस्वीरें
सीमाब अकबराबादी
ना'त-ओ-मनक़बत
विर्द सब बढ़ कर है और सब से बड़ा विर्द-ए-दुरूदमोरिद-ए-रहमत हुआ जिस ने पढ़ा विर्द-ए-दुरूद
अफ़ज़ल हुसैन अस्दक़ी
ग़ज़ल
अगर दे कोई दिल अपना तो ख़ुद सर काट कर रख देये है क़ानून-ए-उल्फ़त में सज़ा जुर्म-ए-मोहब्बत की
ख़्वाजा आसिफ़ हुसैन
शे'र
क्यूँ-कर न क़ुर्ब-ए-हक़ की तरफ़ दिल मिरा कीजिएगर्दन असीर-ए-हल्क़ा-ए-हबल-उल-वरीद है
बेदम शाह वारसी
शे'र
तू और ज़रा मोहकम कर ले पर्दों की मुकम्मल बंदिश कोऐ दोस्त नज़र की गर्मी को हम आज शरारा करते हैं